Independence Day: इस वर्ष हम अपनी 77 वीं स्वतंत्रता दिवस की ओर बढ़ रहे हैं इस दिन हम सभी अपनी स्वतंत्रता सेनानियों को याद करते हैं। लेकिन समय के इस चक्र ने हमें कुछ ऐसे शख्सियतों को भुला दिया जिनका योगदान इस लड़ाई में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। इसीलिए इस स्वतंत्रता दिवस पर हम लाए हैं एक खास कार्यक्रम जिसमें हम स्वतंत्रता दिवस के इस सप्ताह 3 दिनों में 3 ऐसे क्रांतिकारियों के बारे में जानेंगे जिन्हें हमारे इतिहास के किताबों में उतना स्थान नहीं मिला है तो आप भी जुड़े 13 अगस्त से हमारे इस कार्यक्रम में और आजादी के दिन इन महापुरुषों के योगदान के बारे में जाने।
Episode -01: आजादी के सितारे राम प्रसाद बिस्मिल
भारत 15 अगस्त 2023 को आजादी के 77वीं वर्षगांठ मनाने को तैयार है। 15 अगस्त के दिन हिंदुस्तान की धरती दुल्हन की तरह सज उठती है और सजी भी क्यों ना इसका श्रृंगार भारत मां के बेटों ने अपनी खून से जो किया है। इन बहादुरों पर इतना तो बनता ही है लेकिन इनमें से कुछ शूरवीर ऐसे हैं जिन्हें इतिहास में शायद इतनी जगह नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी इसीलिए आजादी के इस उत्सव के मौके पर हम लेकर हाजिर हैं सप्ताह के 3 दिन 3 शूरवीर की अनसुनी कहानियां। इसी कड़ी में आज की पहली कहानी है आपके लिए ….
बात तब की है जब आजादी की मसाल तो जल चुकी थी लेकिन अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति ने इसके लौ को कम कर रखा था। तब कांग्रेस दो धड़ों में बट चुका था और मुस्लिम लीग भी अपनी अलग राह पकड़ चुका था। तभी कांग्रेस की 1916 में लखनऊ में ऐतिहासिक बैठक आयोजित हुई बैठक का एजेंडा था कांग्रेस की उदारवादी और गरमपंथी धड़े को फिर नजदीक लाने का और कांग्रेस-मुस्लिम लीग के बीच समझौते का।
लखनऊ में बैठक के लिए आना हुआ तब के सबसे लोकप्रिय जन नेता बाल गंगाधर तिलक का। जब बाल गंगाधर तिलक लखनऊ स्टेशन पहुंचे तो वहां भीड़ का हुजूम लगा हुआ था। कांग्रेसी तो थे ही पर युवाओं की भीड़ देखने लायक थी। उस वक्त के नेता जगत नारायण मुल्ला जो शायर भी थे इसीलिए अपने नाम के साथ मुला लगाते थे वे बाल गंगाधर तिलक को अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन युवा राम प्रसाद बिस्मिल, बाल गंगाधर तिलक के सम्मान में भव्य यात्रा निकालना चाहते थे।
19 साल के राम प्रसाद बिस्मिल की उर्जा देखने लायक थी जिस बग्घी पर बाल गंगाधर तिलक सवार थे राम प्रसाद बिस्मिल ने बग्घी से घोड़े निकाल दिये और खुद खींचने लगे। तभी युवाओं का हुजूम देखते ही देखते बग्घी के पीछे चल पड़ा। यह बात जगत नारायण को काफी नागवार गुजरी। बिस्मिल, जगत नारायण की आंखों में कुछ यूं खटके की जब काकोरी कांड में बिस्मिल का नाम आया तो उनके खिलाफ सरकारी वकील बन जगत नारायण ने जिरह की और बिस्मिल को सजा -ए मौत मिली। दुख की बात यह थी कि उसी जगत नारायण के नाम पर बाद में लखनऊ के एक सड़क का नाम भी रखा गया। पर रामप्रसाद बिस्मिल हमारे दिलों में हैं और रहेंगे।
कल मिलते हैं अगली कहानी के साथ। अगर आपके पास भी कोई कहानी हो तो कमेंट बॉक्स में हमें जरूर साझा करें और हमारा यह पहला कैसा लग रहा है कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
Episode – 02: कनकलता बरुआ
आजादी की अनसुनी कहानी की श्रृंखला में आज प्रस्तुत है एक नई कहानी और आज बात होगी पूर्वोत्तर की उस वीरांगना की जिसमें भगत सिंह जैसी साहस थी और गांधी जैसी संकल्प शक्ति।
एक अहिंसक क्रांतिकारी इतिहास के पन्नों में विरले ही जन्म लेते हैं बात हो रही है असम की कनकलता बरुआ की जो महज 13 वर्ष की उम्र में ही अनाथ हो चली अपने नानी के यहां पली बढ़ी। कनकलता पढ़ने में बहुत तेज तर्रार थी।
असम में नवजागरण के अग्रदूत जन प्रिय कवि ज्योति प्रसाद अग्रवाल की देशभक्ति गानों से कनकलाता के बाल मनोविज्ञान पर गहरा असर पड़ा। और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब सभी शीर्ष नेतृत्व की गिरफ्तारी हो गई थी तब असम में आंदोलन की बागडोर ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने संभाली।
उन्होंने आंदोलन के लिए गुप्त सभा की नीति अपनाई थी। सितंबर 1942 की गुप्त सभा में तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा लहराने का निर्णय लिया गया। 20 सितंबर को युवक-युवतियाँ हाथों में तिरंगा लिए लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे। इसी आत्म बलिदानी दस्ते का नेतृत्व कर रही थी 17 वर्षीय कनकलाता बरूआ। जुलूस के कुछ नेताओं को संदेह था कि कहीं कनक लता और उनके साथी डर कर भाग न जाए। इस संदेह को भापते हुए कनकलाता ने संदेश दिया कि हम युवतियों को अबला ना समझे।
थाने के पास जब जुलूस पहुंचा तो थाना प्रभारी ने चेतावनी दी की यदि तुम लोग 1 इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों की बौछार से भुन दिए जाओगे। इस पर भीड़ का नेतृत्व कर रही है कनकलाता बरूआ शेर के समान गरज उठी….
आत्मा अमर है नाशवान तो शरीर है…..
हम क्यों ही डरेंगे…. करेंगे या मरेंगे…
कनकलाता तिरंगा लिए आगे बढ़ती चली गई। संकल्प की ऐसी शक्ति देख जुलूस भी दोगुने जोश से आगे बढ़ा और तभी गोलियों की बौछार शुरू हो गई पर कनकलता रुकी नहीं गोली कनकलता को भेद गई पर कनकलाता ने तिरंगा झुकने नहीं दिया। इसने साथियों को प्रेरित किया अन्य साथियों ने तिरंगा हाथ में लिए आगे बढ़ते गए और एक-एक कर गोलियों का निशाना बनते रहे पर रुकने का नाम नहीं लिया।
आखिरकार कनकलता की शहादत रंग लाई। अंत में रामपति राजखोवा थाने पर झंडा फहरा दिया। थाने पर तिरंगा लहरा रहा था और इतिहास के पन्नों में कनकलाता की साहस का शौर्य गाथा दर्ज हो चुकी थी जो आज भी अन्याय के विरुद्ध युवाओं को आवाज बुलंद करने की सीख देती है।
Episode – 03: गेंदालाल दीक्षित
आजादी की अनसुनी कहानियों की श्रृंखला में आज लेकर आए हैं तीसरी कहानी।
आज बात ऐसे गुमनाम वीर क्रांतिकारी की होगी जिसे अपने ही देश में शायद भुला दिया गया हो। पर जिनकी वीर गाथाएं इतिहास के पन्नों पर अंकित है।
बात हो रही है आगरा में जन्मे गेंदालाल दीक्षित की। बंग-भंग आंदोलन से प्रभावित गेंदालाल दीक्षित देश में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति के लिए और देश को आज़ाद की आवाज़ को बुलंद करने के लिए एक योजना बनाई उस समय देश में डाकुओ का आतंक था लेकिन गेंदालाल ने अपने सूझबूझ से लूट-मार में शामिल इन डाकुओं को आजादी की जंग में शामिल करने के लिए एक योजना बनाई। सभी डाकुओं को इकट्ठा कर उन्हें अपने देश को आज़ाद करने के लिए प्रेरित किया और उन्हें योगदान देने के लिए मनाया और वो मानाने में सफल भी रहे उसी समय शिवाजी समिति का गठन किया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान क्रन्तिकारी रासबिहारी बोस को देश में आज़ादी की आवाज़ और बुलंद करने के लिए वीर लड़ाकों की जरूरत थी। तब गेंदालाल दीक्षित ने 5,000 वीर लड़ाकों को देने का वायदा दिया। और अपनी योजना को आगे बढ़ाने में लग गए और काफी प्रयास किये पर मुखबरी के चलते उनकी योजना सफल न हो पाई।
राज बिहारी बोस उस समय देश छोड़कर जा चुके थे और गेंदालाल दीक्षित भी सिंगापुर रवाना हो गये अपनी दूसरी योजना के लिए। सिंगापूर में गदर पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर बैठक की और इन्होंने भारत की सत्ता बदलने की योजना बनानी शुरू कर दी। सिंगापुर में उन्होंने मातृ देवी दल का गठन किया। इसके बाद वह भारत लौटने के लिए तैयारी शुरू कर दी और वहां से निकल गए पर इसकी बात की सूचना अंग्रेजों को लग गई। अंग्रेजों ने रास्ते में भिंड जिले के मेहना के जंगलों में वीर क्रांतिकारियों को घेर लिया और उन पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।
हमारे वीर क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित को भी तीन गोलियां लगी और उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इन पर तथा अन्य क्रांतिकारियों पर मैनपुरी षड़यंत्र का केस चलाया गया। तब गेंदालाल के मित्र राम प्रसाद बिस्मिल ने इन्हें जेल से मुक्त करने की योजना बनाई।
योजना के अनुसार गेंदालाल अंग्रेजों को सभी जानकारी देंगे और उनसे घुल मिल जायेंगे और इसके लिए उन्हें जब आगरा जेल से मैनपुरी लाया गया तो उनके सहयोगी देवनारायण ने फलों की टोकरी में लोहा काटने की आरी, बंदूक अपने साथियो के साथ मिलकर उनके पास पहुंचा दी। फिर क्या था जेल काटकर गेंदालाल फरार हो गये। यहां से हरिद्वार, दिल्ली होते हुए अपने गांव पहुंचे। लेकिन दुर्भाग्यवश इसी दौरान उन्हें क्षय रोग हो गया। और अंततः 32 वर्ष की अल्पायु में इनका निधन हो गया।