भारत में जाति आधारित जनगणना सही या गलत?

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नमस्कार दोस्तों, पढ़ो पढ़ाओ में आपका स्वागत है। आज के इस ब्लॉग में चर्चा करेंगे की भारत में जाति आधारित जनगणना कितना सही और जरुरी है। हम जानते है की किसी भी देश और समाज के लिए सबसे जरुरी वहां की जनसंख्या, वहां पर रहने वाले लोग। विकास से जुड़ी हुई रणनीति बनाने के लिए हमें पता होने चाहिए की उस देश में कितने लोग रहते है, उनकी आय का स्रोत उपलब्ध है या नहीं, उन्हें और कौन की संसाधनों की जरुरत है।

आज के इस ब्लॉग पोस्ट में हम जनसंख्या के अलावा जनसंख्या के भीतर विशिष्ट रूप से इस बात को जानेंगे की कैसे उस जनसंख्या में अलग-अलग जातियाँ मौजूद है। यानि की हम चर्चा करेंगे जाति आधारित जनगणना की, जो की हमेशा से चर्चा में रही है।

जाति आधारित जनगणना को लेकर लोग सवाल उठा रहे है, कई जानकारों का कहना है की ये तरीका सही नहीं है। हम केवल सामाजिक, आर्थिक के आकड़ो से काम चला सकते है।

जनगणना क्यों जरुरी है?

जनगणना का आयोजन इसलिए कराया जाता है ताकि सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और संस्थानों द्वारा आकड़ो का इस्तेमाल करके यह पता लगा सके की हमारे देश में भौगोलिक क्षेत्रो के अंतर्गत कितने लोग रहते है, वे अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी कर पा रहे है या नहीं, सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं प्रयाप्त है या नहीं, उनके पास सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ पहुंच पा रहा है या नहीं।

सामाजिक परिवर्तन के लिहाज से भी जनगणना जरुरी हो जाता है क्योकि हम जानते है की भारतीय समाज में अभी भी समाज का दबदबा कायम है और पहले से चली आ रही सामाजिक कुरीति को बदलना बदलते समय के साथ जरुरी हो जाता है तो यदि हमारे पास आकड़े रहेंगे तो सरकार को या संस्थानों को सामाजिक, आर्थिक रूप से सामाजिक बदलाव लाने में सहूलियत होगी।

यदि हम परिसीमन की बात करे तो, लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में सीटों का निर्धारण के लिए जनगणना जरुरी हो जाता है। जैसा की हम जानते है की उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा सीटें है क्योकि उत्तर प्रदेश की जनसँख्या बहुत ज्यादा है और राज्यों की तुलना में। इसलिए भी जनगणना जरुरी हो जाता है।

जनगणना का इतिहास

भारत के सन्दर्भ में देखे तो जनगणना का इतिहास बहुत पुराना रहा है। जनगणना के प्रारंभिक साक्ष्य ऋग्वेद में मिलते है। इसमें 800 – 600 ईसा पूर्व के दौरान किसी प्रकार की गणना के साक्ष्य मिलते है।

321 – 296 ईसा पूर्व के आसपास कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कराधान के लिए जनगणना पर जोर दिया गया है उसमे कहा गया है की राज्य को अपनी नीतियां सही तरीके से चलानी है तो राज्य को यह पता होना चाहिए की राज्य में कितने लोग रहते है।

इसी तरह अगर हम मुग़ल के समय में देखे तो पता चलता है की अकबर के प्रशसनिक रिपोर्ट आइन ए अकबरी में जनसँख्या, उद्योग और कई अन्य विषेशताओं से सम्बंधित व्यापक आकड़े मौजूद है।

अगर हम आधुनिक भारत की बात करे तो आधुनिक भारत में जनगणना की शुरुआत औपनिवेशिक शासन के दौरान हुई थी और पहली बार विस्तृत जनगणना 1881 ईस्वी में हुआ था।

वर्ष 1941 की जनगणना के लिए भारत के जनगणना आयुक्त “डब्ल्यू डब्ल्यू एम यीट्स” थे।

सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना

सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना SECC – 1931 में आयोजित की गई थी उसके बाद लम्बे समय के इंतजार के बाद फिर से 2011 में सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना आयोजित की गई।

सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रो में प्रत्येक भारतीय परिवारों की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।

केंद्र और राज्य के अधिकारीयों को आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित से जुड़े संकेतक प्राप्त होता है जिससे की अपने क्षेत्र या जिस जिलों में वे कार्यरत है वहां के लिए नीति निर्धारण कर सके।

आकड़े जारी करने वाले संस्थान या प्राधिकरण आकड़ो का उपयोग करके गरीब और वंचित व्यक्ति को परिभाषित कर सकता है।

सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना से सरकार को पुनर्मूल्यांकन करने में आसानी होती है।

जातिगत जनगणना से पता चलता है कौन से जाति समूह आर्थिक रूप से सबसे ख़राब स्थिति में थे और कौन बेहतर स्थिति में थे या अभी है।

सामान्य जनगणना और सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना में अंतर

जनगणना भारतीय आबादी का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करती है और यह बताती है की भारत के भौगोलिक क्षेत्र में कितने लोग रहते है। जबकि सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना के माध्यम से सरकार द्वारा सहायता के योग्य लाभार्थियों की पहचान की जा सकती है।

जाति आधारित जनगणना करना कितना सही है?

पक्ष में तर्क:

सामाजिक समानता कार्यक्रमों के प्रबंधन में यह सहायक सिद्ध होती है।

जाति जनगणना से प्राप्त आकड़ो लोगो के आर्थिक स्थिति जैसे घर के प्रकार, बिज़नेस के बारे में जानकारी मिल सकती है।

सभी जाति के लोगो के शैक्षिक डेटा के बारे में जानकारी मिलती है तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगो की साक्षरता दर में कितनी वृद्धि हुई है ये जानकारी हमें मिल सकती है।

विपक्ष में तर्क:

कुछ लोगो का कहना है की जाति आधारित जनगणना के सामाजिक और राजनितिक दुष्प्रभाव हो सकते है।

जाति आधारित जनगणना से लोगो के मन में यह फिर से बैठ जायेगा की कुछ विशेष जाति के लोग के पास ज्यादा सम्पति है या उनका लाइफस्टाइल बेहतर है।

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